पाकिस्तान में आज भी मौजूद है शहीद भगत सिंह की हवेली, सालों से ये पाकिस्तानी परिवार कर रहा है हिफाज़त
भारत की आजादी के इतिहास का जिक्र भगत सिंह के बिना पूरा नहीं हो सकता. देश की आजादी के लिए लड़ते हुए 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी दे दी थी. इस बात को कई साल गुजर गए हैं, लेकिन भगत सिंह आज भी हमारे जेहन में जिंदा हैं. भगत सिंह एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्हें चाहने वाले जितने सरहद के इस पार मौजूद हैं तो उतने ही सरहद की दूसरी तरफ भी. पाकिस्तान में उनका वो घर भी मौजूद है, जहां उनका जन्म हुआ था और जहां उन्होंने अपना बचपन बिताया था. भगत सिंह की हवेली आज भी पाकिस्तानी पंजाब के शहर फैसलआबाद (लायलपुर) की तहसील जुडांवला में मौजूद है. यहां जाते समय रास्ते पर सब कुछ वैसा ही है, जैसा शहरों से कस्बे की तरफ जाते हुए नजर आता है. हर चंद किलोमीटर के फासले पर छोटी-छोटी दुकानों और रेढ़ियों, ठेले वालों के हुजूम और फिर दूर-दूर तक फैले हुए खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता है.
इस मंजर के बीच में छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां और कहीं-कहीं निजी हाउसिंग सोसाइटियों के बड़े-बड़े खुशनुमा गेट. मकवाना बाईपास से थोड़ा आगे बढ़ें तो सड़क किनारे लगे साइन बोर्ड पर जंग-ए-आजादी के हीरो भगत सिंह का नाम लिखा है और इससे ये पता चलता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के इस हीरो का गांव चक 105 ‘बंगला’ यहां से महज 12 किमी की दूरी पर है. भगत सिंह के दादा के इस घर को सरकार ने चार साल पहले हेरिटेज साइट घोषित कर दिया गया था. इसे सरंक्षित करने के बाद दो साल पहले पब्लिक के लिए खोल दिया गया. फरवरी 2014 में फैसलाबाद डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर ऑफिसर नुरूल अमीन मेंगल ने इसके संरक्षित घोषित करते हुए मरम्मत के 5 करोड़ रुपए की रकम भी दी थी.
भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन नाम का एक संगठन भगत सिंह की यादों को पाकिस्तान में संजोने का काम कई सालों से करता आ रहा है. इस संगठन के लोग गांव में 23 मार्च को उनके शहादत दिवस सरदार भगत सिंह मेले की भी आयोजन करते हैं है. कहते हैं उनके दादा ने एक पेड़ लगाया था जो करीब 120 साल पुराना आम का पेड़ है, वो आज भी वहां मैजूद है. उनके गांव का नाम बदल कर भगतपुरा रख दिया गया था. यहां भगत सिंह द्वारा इस्तेमाल तिजोरी, चरखा और उनके हाथ के लगाए हुए बेरी के पेड़ इस हवेली का कीमती सामान हैं. बंटवारे के बाद हवेली को पेशे से वकील साकिब वरक के बुजुर्गों को आवंटित किया गया था. अब उनका परिवार ही उनकी देखभाल करता है. साकिब वरक बताते हैं कि इस घर की देखभाल का खर्चा वह अपनी जेब से उठाते हैं. भगत सिंह और आजादी के लिए दी जाने वाली कुर्बानियों को अपनी आंखों से देखने वाले इस गांव के ज्यादातर लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन गांव के बुजुर्ग अब भी भगत सिंह को ऐसे ही याद करते हैं जैसे कोई अपने पुरखों का जिक्र करता है. मुहम्मद सिद्दीकी रिटायर्ड अधिकारी हैं और उनकी उम्र 74 साल के करीब है. उन्होंने बताया कि भगत सिंह ने जिस कम-उमरी में आजादी के लिए जद्दोजहद की, उसकी मिसाल दुनिया में कम ही मिलती है.
उन्होंने गांव में पहला स्कूल बनवाया, जहां खुद भगत सिंह ने भी तालीम हासिल की थी.लोगों की सहूलियत के लिए दो घर बनवाए, जहां पर शादी-ब्याह होता था और किसी से कोई खर्च नहीं लिया जाता था, बल्कि बाहर से आने वालों को मुफ्त रिहाईश और खाना भी मिलता था. गांव में तीन तालाब थे जिनके लिए पानी मंजूर करवाया गया. गांव को आने वाली सड़क पर लगे अक्सर दरख्त भी उनके लगाए हुए है. मुहम्मद सिद्दीकी के मुताबिक उनके बुजुर्ग मिसाल दिया करते थे कि यहां सिख रहकर गए हैं और उन्होंने गांव का कैसा अच्छा निजाम कायम किया था, लेकिन बाद में आने वाले इस निजाम को कायम न रख सके. उनका कहना था कि भगत सिंह वो शख्सियत हैं जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान में अच्छे ताल्लुकात की बुनियाद बन सकते हैं.